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नो॑ बोधि श्रु॒धी हव॑मुरु॒ष्या णो॑ अघाय॒तः स॑मस्मात् ॥ तं त्वा॑ शोचिष्ठ दीदिवः सु॒म्नाय॑ नू॒नमी॑महे॒ सखि॑भ्यः ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ tvā śociṣṭha dīdivaḥ sumnāya nūnam īmahe sakhibhyaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। नः॒। बो॒धि॒। श्रु॒धि। हव॑म्। उ॒रु॒ष्य। नः॒। अ॒घ॒ऽय॒तः। स॒म॒स्मा॒त्। तम्। त्वा॒। शो॒चि॒ष्ठ॒। दी॒दि॒ऽवः॒। सु॒म्नाय॑। नू॒नम्। ई॒म॒हे॒। सखि॑ऽभ्यः ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:24» मन्त्र:4 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अग्निपदवाच्य विद्वान् के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शोचिष्ठ) अत्यन्त शुद्ध करने और (दीदिवः) सत्य के जनानेवाले अग्नि के सदृश तेजस्विजन ! (सः) वह आप (नः) हम लोगों को (बोधि) बोध दीजिये और (नः) हम लोगों के (हवम्) पढ़े हुए विषय को (श्रुधी) सुनिये (समस्मात्) सब (अघायतः) आत्मा से पाप के आचरण करते हुए हम लोगों की (उरुष्या) रक्षा कीजिये (तम्) उन (त्वा) आप को (सखिभ्यः) मित्रों से (सुम्नाय) सुख के लिये हम लोग (नूनम्) निश्चित (ईमहे) याचना करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - सब प्रजा और राजजनों को चाहिये कि राजा के प्रति यह कहें कि आप सब अपराधों से स्वयं पृथक् हो के और हम लोगों की रक्षा करके विद्या का प्रचार और धार्मिक मित्रों के लिये सुख की वृद्धि करके दुष्टों को निरन्तर दण्ड दीजिये ॥४॥ इस सूक्त में अग्निपदवाच्य ईश्वर अर्थात् राजा और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौबीसवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निपदवाच्यविद्वद्गुणानाह ॥

अन्वय:

हे शोचिष्ठ दीदिवोऽग्निरिव राजन् ! स त्वं नो बोधि नो हवं श्रुधी समस्मादघायतो न उरुष्या तं त्वा सखिभ्यः सुम्नाय वयं नूनमीमहे ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (नः) अस्माकम् (बोधि) बोधय (श्रुधी) शृणु (हवम्) पठितम् (उरुष्या) रक्ष। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अघायतः) आत्मनोऽघमाचरतः (समस्मात्) सर्वस्मात् (तम्) (त्वा) त्वाम् (शोचिष्ठ) अतिशयेन शोधक (दीदिवः) सत्यप्रद्योतक (सुम्नाय) सुखाय (नूनम्) निश्चितम् (ईमहे) याचामहे (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः ॥४॥
भावार्थभाषाः - सर्वैः प्रजाराजजनै राजानं प्रत्येवं वाच्यं भवान् सर्वेभ्योऽपराधेभ्यः स्वयम्पृथग्भूत्वाऽस्मान् रक्षयित्वा विद्याप्रचारं धार्मिकेभ्यो मित्रेभ्यः सुखं वर्धयित्वा दुष्टान् सततं दण्डयेदिति ॥४॥ अत्राग्नीश्वरविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुर्विंशतितमं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥